पांच साल बाद भी मायावती ने प्रदेश के 20 फ़ीसदी दलितों में से जाटव वोट
बैंक को तो अपने साथ बखूबी जोड़े रखा है, लेकिन दलितों में ही बाकी
समुदायों में उनका आधार धीरे-धीरे खिसकता दिख रहा है. ठीक यहीं उनके सर्वजन
आधार को शक्ल देनेवाला ब्राह्मण, वैश्य, कायस्थ और मुसलिम ही नहीं, अति
पिछड़ों में कहार, विश्वकर्मा और निषाद जैसे जाति समुदायों के उनसे दूर
होने की बहुत साफ़ आहट सुनाई पड़ रही है.
वाराणसी से 40 किलोमीटर दूर, दुनियाभर में कालीनों के लिए मशहूर शहर
भदोही में चौराहे के करीब उस चाय के स्टाल की अंगीठी पर चाय उबल रही थी. और
इसी के साथ बहस भी. इस बहस में हर वर्ग के लोग शामिल थे. पहनावे और बातचीत
से जान पड़ता था कि समाज के एक से ज्यादा जाति के लोग यहां मौजूद हैं.
जाहिर है बहस का मुद्दा चुनाव था. ठीक दो दिन बाद यानी 11 फ़रवरी
(शनिवार) को यहां वोट डाले जाने थे. मैंने अजनबी बने रहते हुए अपने कान इस
बहस की ओर मोड़ दिये. इसी गरमाती बहस के ठीक बीच से एक आवाज पूरे तेवर के
साथ मेरी सोच से आ टकरायी. आवाजें बहुत थीं.
लेकिन इन ढेर सारी आवाजों के बीच मेरे जेहन में यही एक बात शिद्दत से
दर्ज होकर रह गयी. उबलती हुई चाय की भाप के बीच कोई कह रहा था माया के राज
में तो बिजली का खंभा भी दलित के दरवाजे पर जाकर ठहरजाता है.
चाय खत्म करते हुए मुझे याद आयी, एक दिन पहले की बात. मैं अपनी इसी
चुनावी यात्रा में फ़तेहपुर जिले के बिन्दकी कस्बे से आगे बढ़ता हुआ बांदा
के रास्ते में था. एक जगह साप्ताहिक हाट लगी थी. आस-पास के गांव से लोग
वहां खरीदारी करने जुटे थे.
मैंने चुनावी हवा का रुख भांपने के लिए हाट के खरीदारों में से एक से
कुछ देर आत्मीयता से बात करते-करते अपना सवाल दाग दिया, ‘इस बार आपका वोट
कहां जा रहा है?’ ‘अभी तय करेंगे’ जवाब यही मिला. लेकिन उस शख्स के चेहरे
के भाव जाहिर कर रहे थे कि उसे वोट कहां डालना है, यह वह तय कर चुका है.
कुछ देर और कुरेदने पर शिकायती लहजे में उसने कहा, ‘माया के राज में सब
कुछ जाटव को मिलता है. बाकी दलित को कुछ नहीं’. बांदा से करीब 300
किलोमीटर दूर फ़ूलपुर में मैं न तो चाय की दुकान में था, न ही किसी हाट
में. मैं इलाहाबाद से वाराणसी की ओर जाती मुख्य सड़क से करीब दो किलोमीटर
दूर एक गांव के ठीक बीच में था.
कच्ची सड़क पर सामने से आ रहे मोटर साइकिल सवार को रास्ता पूछने के
बहाने रोका.बातों का सिलसिला चल निकलने पर उससे अपना जरूरी सवाल पूछ
लिया,‘मायावती के राज में आपकी जिंदगी कितनी बदली.
‘सवाल खत्म होने से पहले उसका जवाब सामने था,‘सर, इस सरकार में दलित से
जरा ऊंची आवाज में क्या बोला कि उठा कर हरिजन एक्ट लग जायेगा. फ़िर कोई
विवेचना नहीं, कोई सुनवाई नहीं.’भदोही के चाय स्टॉल पर खड़ा वह व्यक्ति
जाति से वैश्य था. बांदा के रास्ते हाट में मिला शख्स हरिजन (सोनकर) था.
गांव में मिला मोटरसाइकिल सवार मजहब से मुसलमान था. लखनऊ से शुरू होकर
बांदा, इलाहाबाद होते हुए भदोही तक करीब 600 किलोमीटर के फ़ासले पर अलग-अलग
हिस्सों में मौजूद ये तीन शख्स न सिर्फ़ एक ही बात बोल रहे थे, बल्कि इन
तीनों ने पिछली बार मायावती को वोट दिया था.
अपने दलित (जाटव) वोट के साथ ऐसी अलग-अलग जातियों से जुटाया गया वह
सर्वजन आधार ही था, जिसने पांच साल पहले मायावती को पूर्ण बहुमत दिलाया.
देश की पहली दलित सरकार की राह तैयार की. देश ने इससे पहले कई दलित
मुख्यमंत्री, जिसमें खुद मायावती भी शामिल थीं, तो जरूर देखे थे, लेकिन
दलितों की असल नुमाइंदगी करती सरकार पहली बार बनी. दलित अपने बूते सरकार
बना रहे थे.
समाज में हाशिए का आदमी केंद्र में था. माया के राज में इस हाशिए के
आदमी को एक नयी ताकत भी मिली. ‘मायावती ने हमें सम्मान दिलाया. हम आज एक
कदम ऊपर खड़े हैं. आज हमें फ्रीडम (आजादी) की जिंदगी महसूस होती है.’ लखनऊ
में कानून की पढ़ाई कर रहे 25 साल के सुभाष गौतम कहते हैं.
यही बात गोरखपुर के करीब बांसगांव में अपने रिक्शे पर आराम कर रहे
रामनरेश से सुनाई पड़ती है. ‘हम अब पूरे सम्मान के साथ चारपाई पर बैठ सकते
हैं.’ लेकिन बसपा के शासन में दलितों को जहां समाज में बराबरी मिली, वहीं
उसने दलित समुदाय को ही जाटव और बाकी दलित में भी बांट दिया है.
सुविधाओं को लेकर पासी और सोनकर समुदाय की शिकायतें बेहद पैनी हैं.
‘एससी में सोनकर हमें वोट नहीं देते, हम बदले में आपको क्यों कुछ दें.’
बलिया में सरकारी शिक्षक और बिन्दकी विधानसभा क्षेत्र के प्रमोद सोनकर कहते
हैं.
ऐसी ही टीस हंडिया विधानसभा क्षेत्र में पासी समुदाय के जीवन लाल की
आवाज में सुनाई पड़ती है- ‘बहन जी, जाटव को सुविधाएं देती हैं, पासी को
कुछ नहीं.’मायावती के लिए परेशानी का सबब यहीं से शुरू होता है.
पांच साल बाद भी मायावती ने प्रदेश के 20 फ़ीसदी दलितों में से जाटव वोट
बैंक को तो अपने साथ बखूबी जोड़े रखा है, लेकिन दलितों में ही बाकी
समुदायों में उनका आधार धीरे-धीरे खिसकता दिख रहा है.
ठीक यहीं उनके सर्वजन आधार को शक्ल देनेवाला ब्राह्मण, वैश्य, कायस्थ और
मुसलिम ही नहीं, अति पिछड़ों में कहार, विश्वकर्मा और निषाद जैसे जाति
समुदायों के उनसे दूर होने की बहुत साफ़ आहट सुनाई पड़ रही है. भदोही में
65 साल के समय नेरू कहते हैं- ‘गिरी ब्राह्मणों ने पिछली बार खुल कर बसपा
का साथ दिया, लेकिन अब नहीं. यहीं चौरी बरदं के जयशंकर पाल के मुताबिक
हरिजन एक्ट (एससी एक्ट) ने तो जीना दूभर कर दिया.
सड़क पर हरिजन को हल्का-सा धक्का क्या लगा कि मुकदमा लाद दिया. स्थानीय
बसपा नेता उसके साथ जुड़ जाता है.’ सर्वजन समुदाय की इस नाराजगी से पार
पाना मायावती के लिए बेहद मुश्किल बन गया है.
कांशीराम के दौर से बसपा से जुड़े परिवार के सुभाष गौतम भी दबी जुबान
में स्वीकार करते हैं कि पहले जैसी बात तो नहीं है. वोट में फ़र्क तो
पड़ेगा. आंकड़े भी इस जमीनी सच की और ले जा रहे हैं. 2007 के विधानसभा और
2009 के लोकसभा चुनाव के बीच ही यह बदलाव देखा जा सकता है.
सीएसडीएस के सर्वेक्षण के मुताबिक बसपा का जाटव वोट जहां 85 फ़ीसदी पर
टिका रहा, वहीं ब्राह्मण वोट 16 से 8 फ़ीसदी पर और अति पिछड़ा वर्ग में 30
से 19 फ़ीसदी पर आ गया. यही वजह रही कि 2007 विधानसभा चुनाव में 30.4
फ़ीसदी वोट के साथ 206 सीट हासिल करने वाली बसपा का 2009 लोकसभा में वोट घट
कर 27.4 फ़ीसदी पर ही नहीं खिसका, विधानसभा की महज 100 सीटों में ही वह
बढ़त हासिल कर पायी.
मुलायम राज की तुलना में सरकारी कामकाज और कानून-व्यवस्था को कुछ
दुरुस्त करने के बावजूद मायावती कोई भी नया हिस्सा अपने वोट बैंक में जोड़
पाने में सफ़ल होतीं, नजर नहीं आ रही हैं. उन्नाव के रास्ते में मिले एक
सरकारी कर्मचारी ने कहा, ‘‘माया का शासन तो हर हाल में मुलायम से बेहतर रहा
है.
गुंडई कम हुई. कर्मचारी समय पर आने लगे. लेकिन ठेकों की बंदरबांट ने सब
चौपट कर दिया. आप देख ही रहे हैं, दर्जन भर मंत्रियों को हटाना पड़ा. इसकी
जिम्मेदारी तो मायावती पर जायेगी ही. वे इससे बरी नहीं हो सकतीं.’ लेकिन इस
सब के बावजूद बसपा की वे सीटें जरूर कुछ सुरक्षित कही जा सकती हैं, जहां
मायावती ने स्थानीय जातीय समीकरणों और उम्मीदवार की लोकप्रियता को तरजीह दी
हैं.
मायावती ने हर बार की तरह रणनीतिक सूझ-बूझ के साथ सिर्फ़ आरक्षित सीटों
पर ही दलित उम्मीदवार खड़े किये हैं. इस रणनीति के तहत कि सामान्य सीट पर
उनकी जाति का वोट तो उनके हक में जायेगा ही, उम्मीदवार के सहारे बाकी वोट
को भी अपनी ओर मोड़ा जा सकेगा.
लेकिन मूल सवाल अपनी जगह बरकरार है कि चुनाव परिणाम आने के बाद बसपा
कहां जाकर ठहरेगी? इसके जवाब में चुनाव और राजनीतिक विषेयक योगेंद्र यादव
कहते हैं, ‘मौजूदा परिदृश्य बसपा के खिलाफ़ जाता दिख रहा है. बसपा के साथ
बड़ी दिक्कत यह है कि उसका वोट पूरे प्रदेश में एक सामान बिखरा है.
ऐसे में उसमें आता थोड़ा-सा भी बदलाव बड़ी संख्या में सीटों को ऊपर-नीचे
करेगा. एक फ़ीसदी वोट का बदलाव करीब 20 सीटों का हेरफ़ेर कर जाता है. आप
अनुमान लगा सकते हैं कि अगर उनका वोट 2007 की तुलना में चार से पांच घीसदी
गिर गया, तो पिछली बार 206 सीटों तक पहुंची बसपा, इस बार कहां तक खिसक सकती
है? भदोही के चाय स्टाल पर ही तेज होती कई आवाजों के बीच एक और आवाज कानों
में गूंज रही है, ‘अब हाथी को निकलने नहीं देना है.’ क्या यह छह मार्च को
आनेवाले नतीजों की पहली आहट है! और क्या मायावती भी इसे सुन पा रही हैं !
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