Latest ARTICLES : परमाणु विद्युत संयंत्र बनाम छोटे विद्युत संयंत्र
जहाँ तक मेरी जानकारी है- परमाणु बिजली
संयंत्रों में ‘परमाणु ऊर्जा’ को ‘विद्युत ऊर्जा’ में नहीं बदला जाता;
बल्कि ‘परमाणु ऊर्जा’ का उपयोग पानी को उबालने में किया जाता है, ताकि इससे
पैदा होने वाली भाप से ‘टर्बाईन’ को घुमाया जा सके। जबकि ‘टर्बाईन’ को
पानी की धारा से भी घुमाया जा सकता है। ऐसे में, ‘परमाणु ऊर्जा’ से
‘टर्बाईन’ को घुमाने की कोशिश- मेरी नजर में तो- ‘तोप से मक्खी मारने’-
जैसा है। इसी प्रकार, ‘घरेलू बिजली’ के लिए बड़े विद्युत संयंत्रों के भी
मैं खिलाफ हूँ। बड़े संयंत्रों का निर्माण ‘औद्योगिक’ बिजली के लिए जायज
है। मैं अपनी ओर से छोटे विद्युत संयंत्रों की एक अवधारणा प्रस्तुत करना
चाहूँगा:
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एक गहरा कुआँ बनाकर उसे नहर द्वारा पास
की नदी से जोड़ दिया जाय। कुएँ के बगल एक ऊँचा और विशाल जलमीनार बनवाया
जाय। जलमीनार के दूसरी तरफ एक कृत्रिम जलप्रपात हो। कृत्रिम जलप्रपात के
नीचे टर्बाईन को व्यवस्थित किया जाय। थोड़ी दूरी पर पावर हाऊस हो, जिसका
जेनरेटर टर्बाईन से जुड़ा हो।
पहले एक डीजल जेनरेटर की मदद से कुँए के
पानी को जलमीनार पर चढ़ाया जाय। जलमीनार के भरने पर कृत्रिम जलप्रपात के
द्वार खोल दिये जायं। जलप्रपात से होकर नीचे गिरने वाला पानी टर्बाईन को
‘वांछित’ गति से घुमायेगा। टर्बाईन की इस गति पावर हाऊस का जेनरेटर बिजली
पैदा करेगा।
जब टर्बाईन घुमने लगे, तब एक सामान्य
‘फीते’ वाली तकनीक का इस्तेमाल करते हुए उसी की शक्ति से पानी को जलमीनार
पर चढ़ाया जा सकता है; अथवा, पैदा होने वाली बिजली का उपयोग इस काम में
किया जा सकता है। (अब डीजल जेनरेटर को बन्द किया जा सकता है।)
टर्बाईन को घुमाने के बाद जो पानी नीचे हौज में गिरेगा, उसे नाली के रास्ते वापस कुएँ में पहुँचाया जा सकता है।
इस प्रकार के छोटे-छोटे बिजलीघर अगर एक,
आधा, या चौथाई मेगावाट भी बिजली पैदा करे, तो प्रखण्ड, कस्बा, पंचायत स्तर
पर बिजली की आपूर्ति की जा सकती है।
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रही बात नगरों/महानगरों की।
क्या एक विशाल ‘पेण्डुलम’ की गतिज ऊर्जा
को ‘गरारियों’ (गीयर्स) की एक शृँखला से गुजारकर इतना नहीं बढ़ाया जा सकता
कि वह एक टर्बाईन को ‘वांछित’ गति से घुमा सके? पेण्डुलम के दोलन के दोनों
किनारों पर इस्पात के दो ‘स्प्रिंग’ लगाकर इसे सदा के लिए गतिशील भी बनाया
जा सकता है।
ऐसे संयंत्रों से अगर कुछ किलोवाट भी
बिजली पैदा हो, तो नगरों/महानगरों में एक-एक इमारत, या इमारतों के समूह के
लिए ऐसे बिजलीघर बनाये जा सकते हैं। इन्हें “निजी” बिजलीघर का भी रूप दिया
जा सकता है, जिसकी स्थापना में सरकार थोड़ी-बहुत मदद करे।
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पहले ‘कमानियों’ से घड़ियों की सूईयाँ
चलती थीं। हाथघड़ियों की सूईयाँ नन्हीं होती थीं, तो घण्टाघरों की सूईयों
का वजन बहुत ज्यादा होता था।
क्या कमानियों से हल्के किस्म के पंखों को घुमाने की बात सोचना मूर्खता है?
कमानी के बक्से को दीवार पर (मानो
स्वीचबोर्ड हो) लगाया जा सकता है। इससे निकलने वाले पतले मगर मजबूत रॉड
(जिनके दोनों किनारों पर गरारियाँ होंगी) दीवारों तथा छत के साथ चलते हुए
खास पंखों तक पहुँचेंगे।
कमानी के बक्से में ‘चाभी’ भर दी जाय। अब
जैसे, कमानी के खुलते रहने से चौबीस घण्टों तक घड़ियाँ चलती रहती थीं,
वैसे इन खास किस्म के हल्के पंखों को भी चौबीस, बारह, या आठ घण्टों के लिए
घुमाया जा सकता है।
यह विधि रेलवे स्टेशन- जैसे जनस्थलों में
अपनायी जा सकती है, जहाँ गर्मियों में पंखे चलते रहते हैं। लोग चाहें, तो
घरों में भी इसे आजमा सकते हैं।
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कृपया इन बातों को “पिछड़ेपन” से मत जोड़िये।
आज नहीं तो कल यह साबित होकर रहेगा कि
तीन सौ मेगावाट का एक बिजली संयंत्र स्थापित करने से बेहतर है एक-एक
मेगावाट का तीन सौ बिजली-संयंत्र बनाना। (हालाँकि बड़े कल-कारखानों के लिए
बड़े बिजलीघरों की जरूरत बनी रहेगी।)
नयी तकनीक तथा नयी जीवनशैली जिस प्रकार
लोगों में बीमारियाँ बढ़ा रही हैं, इससे एक समय ऐसा आयेगा जब फिर से
सामान्य तकनीक तथा (बिना भाग-दौड तथा बिना मानसिक दवाब वाली) सामान्य
जीवनशैली को अपनाने के लिए लोग बाध्य होंगे।